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बिजोवा (विद्यपुर)

बिजोवा (विद्यपुर)

गोड़वाड़ की पंचतीर्थी का प्रथम तीर्थ एवं अज्ञान तिमिरतरणी गुरू वल्लभ व मरूधरोद्धारक गुरू ललितजी की कर्मभूमि-शिक्षा केन्द्र वरकाणा से करीब २ कि.मी., औद्योगिक नगरी फालना से पूर्व दिशा में १५ कि.मी. एवं राष्ट्रीय राजमार्ग क्र. १४ के केनपूरा बस स्टैण्ड से १५ कि.मी. दूर मुख्य सड़क के पास स्थित है 'बिजोवा’ तीर्थ, जिसका प्राचीन नाम है - विद्यपुर।


प्राचीन काल में यह नगर वरकाणा व दादाई गांव का ही एक हिस्सा था। यह विशाल स्वरूप निरंतर होने वाले युद्ध व उससे होने वाली तबाही के कारण समय के साथ-साथ काल-कवलित हो गया। वर्तमान में गांव जहां विद्यमान है, उसकी प्राचीनता के बारे में कोई साक्ष्य व जनप्रामाणिक तथ्य तो उपलब्ध नहीं है, फिर भी ऐसा माना जाता है कि आज जहां यह गांव स्थित है, वो पूर्व समय में वर्तमान आबादी से तकरीबन २ कि.मी. दूर पश्चिम में अवस्थित था, जहां अब भी अवशेष के तौर पर श्री महादेवजी व श्री शीतला माताजी मंदिर और एक प्राचीन बावड़ी मौजूद है। वह स्थान जूना खेड़ा महादेवजी के नाम से जाना जाता है। गांव का अतीत अत्यंत गौरवपूर्ण रहा है। भूतकाल में भी इस गांव के जैन समाज ने गोड़वाड़ अंचल में अपनी कुशाग्रबुद्धि, सूझबूझ एवं दानशीलता की धाक जमा रखी थी व गोड़वाड़ के मानचित्र पर बिजोवा की अमिट मुहर लगी हुई है। 'सादड़ी के साठ और बिजोवा के आठ’ जैसी युक्ति को चरितार्थ करने वाले अनेक गणमान्य गांव के गौरव रह चुके है।


प्रतिमा के लेख के अनुसार, वि.सं. ११२३ में प्रतिष्ठित होने की बात स्पष्ट होती है। वि. सं. १२०० के बाली जैन मंदिर के शिलालेख से यहां सोलंकियों के शासन की पुष्टि व भाटुन्द के सं. १२१० ज्ये. सु. ६, गुरूवार, दि. २० मई ११५४ के लेख के अनुसार, चालुक्स कुमारपाल के शासन की पुष्टि होती है। बिजोवा व दादाई की सीमाएं वरकाणा से जुड़ी होना नगर की प्राचीनता को प्रकट करता है। साथ ही राजा कुमारपाल सोलंकी (कुंतपाल) के शासन की पुष्टि, मंदिर का निर्माण जिनशासन प्रेमी राजा कुमारपाल द्वारा होने का संकेत करती है। जो भी हो मंदिर व प्रतिमा ११वीं सदी के होने की बात स्पष्ट है। वरकाणा के एक शिलालेख के अनुसार, अकबर प्रतिरोधक आ. श्री हीरसूरिजी के शिष्य नारलाई रत्न सूरसवाई आ. श्री विजयसेनसूरि व गणि श्री कमलविजयजी (आचार्यश्री के सांसारिक पिताश्री) के वि.सं. १६४० के करीब बिजोवा में चातुर्मास का उल्लेख प्राप्त होता है। वरकाणा मंदिर के प्रवेश द्वार पर सं. १९५१ के शिलालेख के अनुसार, वि. सं. १९५१ के माघ सुदि ५ गुरूवार को ६०० जिनबिंबो की अंजनशलाका प्रतिष्ठा भट्टारक श्री राजसूरीश्वरजी के हस्ते व बिजोवा चार्तुमास विराजित पद्मसागरजी के उपदेश से 'बिजोवा संघ’ ने करवाई थी। इस प्रतिष्ठा के बाद बिजोवा और दादाई के जैन संघों को तीर्थरक्षा महसूस हुई। इसके पहले वि.सं. १९३२ में आ.श्री विजयानंदसूरिजी (पू. आत्मारामजी) ने तीर्थ महत्ता को बढाने हेतु बिजोवा व दादाई संघ से वार्तालाप करके तीर्थ कर देखभाल प्रारंभ करवाई।


वरकाणा के एक और शिलालेख के अनुसार - 'संवत् १६७७ वर्षे विधपुर विश्रम्य... यात्रा श्री वरकाणा तपा कल्याण विजयजी श्री पार्श्वतीर्थे अर्थात संवत १६७७ में विधपुर (बिजोवा) में चातुर्मास पूरा कर तपा. श्री कल्याणविजयजी ने वरकाणा तीर्थ की यात्रा की। ये कल्याण वि.आ.श्री. हीरसूरिजी के शिष्य थे।


वि.सं. १७४९ फा. सु. १०, दि. ६ मार्च, १६९३, सोमवार को महाराणा जयसिंह ने घाणेराव के ठाकुर गोपीनाथ को परगने गोड़वाड़ में २३ गांवों का पट्टा दिया, जिसमें खिमेल, बिजोवा, वरकाणा, लुणावा आदि मुख्य थे। वि.सं. १९८४ का चातुर्मास आ. श्री वल्लभसूरिजी व मु.श्री विकास विजयजी म.सा. ने किया। इसी तरह सन् १९५७ ई. में आ.श्री समुद्रसूरीश्वरजी म.सा. और सन् १९८० ई. में आचार्य भगवंत विजय इन्द्रदिन्न सूरीश्वरजी ने भव्य चातुर्मास किया। वि.सं. १९९९ का चातुर्मास आ. श्री ललितसूरिजी व सं. २०५० का चातुर्मास आ. श्री सुशीलसूरिजी ने किया। सं. २००६, पौष सु. ८ को 'संघ और संगठन’ विषय पर श्री वल्लभसूरिजी के व्याख्यान व प्रभाव द्वारा बिजोवा के दोनों पक्षों में एकता का संचार किया। अनेक पुण्यशाली आत्माओं ने संयम का मार्ग स्वीकार कर कुल व नगर का नाम रोशन किया। श्री मरूधर सेवा निकेतन, श्री आदर्श जैन युवा सेवा संघ, श्री पुना प्रवासी श्वे. जैन संघ व श्री पाश्र्व महिला मंडल, श्री संघ की सहयोगी संस्थाएं है। देवहित दोशी द्वारा संपादित व प्रकाशित 'श्री बिजोवा दर्पण – २००४’ का विमोचन तत्कालीन जिलाधीश श्री कुलदीपजी रांका के हस्ते हुआ था। मरूधर सेवा निकेतन संस्था की स्थापना आ. श्री ललितसूरिजी की प्रेरणा पाकर, वि.सं. २०२४ के श्रावण सुदि पूर्णिमा दि. ८ अगस्त १९६८ को राजस्थान के भूतपूर्व मंत्री श्री फूलचंद बाफना (सादड़ी निवासी) के करकमलों से हुई थी। ५ जून १९९४ को 'बिजोवा निर्देशिका’ का विमोचन संस्था द्वारा डॉ. पन्नालालजी दोशी के हस्ते संपन्न ·रवाया था। श्रीमान देवराज हीराचंदजी दोशी इस निर्देशिका संपादक और प्रकाशक थे। श्री जैन युवक सेवा संघ की स्थापना ७ जून १९७८ को हुई थी। तालाब के पास श्री पालेश्वर महादेव, श्री चारभुजाजी, श्री चामुण्डा माताजी आदि अनेक प्रसिद्ध अजैन मंदिर है। यहां का सिद्धि विनायक गणपति मंदिर विशेष प्रसिद्ध है। यहां के जैन संघ के चुनाव की प्रक्रिया सारे गोडवाड़ में प्रसिद्ध है।


श्री चिंतामणी पार्श्वनाथ मंदिर : नगर के हृदयस्थल में नीम व वट वृक्ष की झुरमुट में, किले जैसे परकोटे से युक्त विशाल व कलात्मक ९ शिखरबंध प्राचीन जिनालय में, २३वें तीर्थकंर श्री चिंतामणी पाश्र्वनाथ प्रभु की नीलवर्णीय, पद्मासनस्थ प्राचीन कलात्मक परिकर से शोभित प्रतिमा प्रतिष्ठित है, जो नौ नागफणों से युक्त चिंताहरण करने वाली और चित्त को आनंदित करने वाली है। श्री १०८ पार्श्वनाथ नाम गर्भित प्राचीन छंदों में, श्री बिजोवा पार्श्वनाथ नाम का श्री समावेश हुआ है। गांव के नाम से तीर्थपति का नाम पड़ा हुआ है। १२वीं सदी के प्राचीन लेख संग्रह ग्रंथ (भाग-१ ) के एक लेख के अनुसार - 'संवत् ११२३.......सुदि ८ सोमे, श्री षंडरेक संताने लघमादे जिनालये। शांतिसूरेर्गिरा वीर: संगोष्ठ्यकारी मुक्रये ।।१।।’ व सं. १२५८ वर्षे महं वील्हणेन जीर्णोद्धार (:) कृत:’


परिकर के निचे अंकित लेख से ज्ञात होता है कि श्री षंडरेकगच्छीय शांतिसूरिजी ने वि. सं. ११२३, .... सुदि ८, सोमवार को इस जिनालय में मूलनायक के रूप में श्री शांतिनाथ भगवान को विराजमान किया गया था। इसके बाद इसी परिकर में सं. १२५८ में जीर्णोद्धार के बाद भगवान महावीर स्वामी को मूलनायक के रूप में स्थापित किया गया। वर्तमान में मूलनायक श्री पार्श्वनाथ है, जिनकी प्रथम प्रतिष्ठा सं. १६४४ में हुई थी। इससे स्पष्ट होता है कि यह चैत्य और बिजोवा गांव का बसना कितना अधिक प्राचीन है।


वर्तमान में इस जिनालय में विराजमान मूलनायक सहित सभी प्रतिमाओं एवं श्री वल्लभसूरिजी की नूतन गुरू प्रतिमा की जीर्णोद्धार पश्चात प्रतिष्ठा वि.सं. २०१४, पौष वदि १ को युगदृष्टा विजय वल्लभसूरिजी के पट्टालंकार शांत तपोमूर्ति आ. श्री समुद्रसूरिजी (पालीरत्न) के सुहस्ते संपन्न हुई थी।


वि.सं. २०४६ के वैशाख सुदि ३ (अक्षय तृतीया), सोमवार दि. ८ मई १९८९ के दिन, पू.आ.श्री सुशीलसूरिजी के हस्ते, नूतन गुरू मंदिर में शुभ लग्र में आ. श्री शांतिसूरिजी, आ. श्री ललितसूरिजी व आ. श्री समुद्रसूरिजी की प्रतिष्ठा संपन्न हुई। रंगमंडप में प्रतिष्ठित श्री वासुपूज्य स्वामी प्रतिमा का प्रतिष्ठा वि. सं. २०१३ के माघ सुदि १४, बुधवार एवं प्रभु श्री अरनाथजी व कुंथुनाथजी प्रतिमा की प्रतिष्ठा वि.सं. २०२४, फा. सु.३ शुक्रवार को आ. श्री. विजयकैलास सागरसूरिजी के हस्ते संपन्न हुई है। एक और पार्श्वनाथजी प्रतिमा की अंजनशलाका बिसलपुर में, वि.सं. १९९२, वै.सु. १० को आ. श्री ऊँकारसूरिजी के हस्ते हुई। भमती में श्री नाकोडा भैरवदेव की प्रतिमा की प्रतिष्ठा गच्छाधिपति आ. श्री विजय नित्यानंदसूरिजी म.सा. के वरदहस्ते, वि. सं. २०६२, ज्येष्ठ वदि ७, दि. १९ मई २००६ को संपन्न हुई। इसका खनन दि. ९.१२.२००५ को हुआ था।


श्री संभवनाथजी मंदिर : मुख्य सड़क पर बस स्थानक के समीप, आधुनिक शिल्पकला को अपनी गोद में समाये, अष्टकोणीय इस जिनप्रासाद में, तृतीय तीर्थंकर श्री संभवनाथ प्रभु की प्रतिमा प्रथम मंजिल पर प्रतिष्ठित है। श्री संघ की वास्तु पर श्री मुन्नालालजी केसरीमलजी बोराणा देाशी परिवार ने इस जिनालय का निर्माण करवाकर श्री संघ को सुपुर्द कर दिया। वहीवट श्री संघ पेढी, बिजावो करती है। मंदिर के तल मंजिल पर जैन शासन रक्षक, प्रकट प्रभावक श्री घंटाकर्ण महावीरदेव की अनूठी व मनलुभावन प्रतिमा प्रतिष्ठित है। मंदिर की प्रतिष्ठा आ. श्री सुबोध सागरजी एवं आ. श्री मनोहर कीर्तिसूरिजी के हस्ते, वि. सं. २०४६, आषाढ वदि २, रविवार दि. १० जून १९९० को संपन्न हुई थी।


दादावाड़ी गुरू मंदिर : इसी मंदिर के पास श्रेष्ठीवर्य श्री अगरचंदजी गुलाबचंदजी कांकरिया परिवार द्वारा निर्मित गुरू मंदिर में योगीराज श्री शांतिसूरिजी, आ. श्री. ललितसूरिजी व आ. श्री समुद्रसूरिजी की प्रतिमाएं प्रतिष्ठित है। इसकी प्रतिष्ठा वीर नि. सं. २५१५, वि. सं. २०४५, वैशाख सु. ३ (अक्षय तृतीया), सोमवार दि. ८ मई १९८९ को नीतिसमुदाय के आ. श्री सुशीलसूरिजी के हाथों संपन्न हुई थी।


श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथजी मंदिर : बिजोवा से आधा कि.मी. दूर मुख्य सड़क पर श्री बोकडिय़ा परिवार द्वारा स्वद्रव्य से नवनिर्मित सौध शिखरी जिन मंदिर में मूलनायक श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथदि जिनबिंबों की अंजनशलाका प्रतिष्ठा वि. सं. २०६४ (श्री वीर नि.सं. २५३४), माघ कृ. ६, सोमवार दि. २८.१.२००८ को प्रात: शुभ लग्र में श्री रामचंद्रसूरिजी की समुदायवर्ती आ. श्री मुक्तिचंद्रसूरिजी आ. ठा. की निश्रा में संपन्न हुई थी। इसका खनन वि.सं. २०५४ मार्गशीर्ष कृ.३ ई. सन् १९९८, रविवार व शिलान्यास वि.सं. २०५४ के मार्गशीर्ष कृ.१० रविवार, ई. सन् १९९८ में संपन्न हुआ था।


श्री मणिभद्रजी मंदिर : जैन पेढी के ठीक सामने उपाश्रय की एक छतरी में जागृत व चमत्कारी श्री मणिभद्र दादा का मंदिर स्थापित है।


श्री विजयवल्लभ द्वार : इसका उद्घाटन समारोह पू. आ. श्री धर्मधुरंधरसूरिजी की निश्रा में व मा. श्री. पुष्पजी जैन (सांसद) मुख्य अतिथि की उपस्थिती में दि. २४ मई, २०० को शा. छोगमलजी हीराचंदजी बोराणा देाशी के करकमलों से संपन्न हुआ।


सुविधाए : आराधना हेतु श्रावकों का एक और श्राविकाओं का तीन उपाश्रय, बोराणा आराधना भवन, श्री वर्धमान तप आयंबिल खाता भवन, भोजनशाला भवन, दो भवन न्याति नोहरे, अतिथी भवन में आधुनिक शैली के कमरे, श्री संघ का अलग से जल प्रदाय स्थान, पेढी, पूनम प्याऊ आदि सभी सुविधाएं यहां उपलब्ध है। मार्गदर्शन : रानी स्टेशन से देसुरी की मुख्य सड़· पर, रानी से ५ कि.मी. दूर स्थित बिजोवा के लिये, आवागमन हेतु सभी साधन उपलब्ध है। रानी स्टेशन से सरकारी, प्रायवेट बसें, टैक्सी, ऑटों की सुविधा निरंतर रहती है। नजदीक का हवाई अड्डा जोधपुर १३५ कि.मी.दूर है। अष्टापद तीर्थ-४, वरकाणा-२, नादाणा तीर्थ १०, हाईवे नं. १४ पर केनपूरा बस स्टैंड से १५ कि.मी. दूर स्थित है।

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