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बाली - (बालाही, वल्लभी)

बाली - (बालाही, वल्लभी)

राष्ट्रीय राजमार्ग क्र. १४ पर साण्डेराव से (वाया फालना रेलवे स्टेशन) १८ कि.मी. दूर स्थित बाली अरावली पर्वत श्रृखंला से निर्झरित छोटी बडी असंख्य जलधाराओं व प्राकृतिक सौंदर्य से सुशोभित गोडवाड क्षेत्र का हृदय स्थल है। बाली नाम के संबंध में अनेक किंवदंतिया प्रचलित है।


उदयपुर के महाराणा की ‘महारानी’ बालीकुंवरी के नाम से यह बसाया गया था, इसलिए इसका नाम बाली रखा गया। यह भी किंवदंती प्रचलित है कि बाली नामक चौधरानी ने सर्वप्रथम यहां निवास किया, जिससे इनका नाम बाली पडा। संवत् १२४० में चौहान राजा सर्ववली बालदेव ने युद्ध में विजयोपरांत इस नगर को राजधानी बनाकर स्वयं के नाम पर बाली नामकरण किया। एक अन्य किंवदंती के अनुसार ठाकुर चैनसिंहजी के हृदय महल की स्वामिनी देवासी (रेबारी) जाति की ‘बाली’ नामक सुबाला ने बोया ग्राम के महलों के षडयंत्रों से ठाकुर की रक्षा कर इस पुण्यभूमि को शरणस्थली बनाया। अत: उसके प्रेम और उदात्त एहसान को अक्षुण्ण बनाए रखने के उद्देश्य से स्थापित इस नगर का नाम ‘बाली’ रखा गया। प्राकृतिक सौंदर्य छटा से अभिभूत, धन- धान्य से समृद्धशाली, प्रभावशाली और प्राणों से प्यारी इस धरती को पूज्य पूर्वजों, ऋषि मुनियों ने बाली कहकर पुकारा।


इस प्रकार अनेकों किंवदंतियां प्रचलित हैं। वस्तुत: यदि इस ऐतिहासिक नगर के नामकरण के बारे में प्रचलित सारी किंवदंतियां लिखी जाएं तो ‘पाबूजी की पड’ बन जाए। यहां पांडवों के खेलने के गुल्ली डंडे मौजूद हैं और भीम के बल प्रयोग के चमत्कार का नमूना धरती पर जोर से मारे गए लात से बने गड्ढ़े की बावडी और एक तालाब भी मौजूद है। प्राचीन जैन मंदिर में उपलब्ध सं. ११४३ का एक शिलालेख के अनुसार, सोलंकी राजा सिद्धराज जयसिंह उक्त संवत् में महाराजाधिराज जयसिंह का सामंत आश्वाक था, जिसकी रानी की जिविका में बालाही ग्राम था। उस समय पाल्हा के पुत्र वोपणवस्थमन ने बहुधृण देवी के उत्सव के निमित्त चार द्रम दिए। आगे चलकर उसी व्यक्ति द्वारा कुछ अन्य लोगों, कुओं आदि को एक एक द्रम दिये जाने का उल्लेख है। बालाही ग्राम वर्तमान का बाली है (बोलमाता बहुगुणा देवी का मंदिर) (संदर्भ : ओझा निबंध संग्रह (प्रथम भाग) पृष्ठ क्र. २७८)


दूसरा शिलालेख वि.सं. १२१६, श्रावण वदि- १, ई. सन् ११५९ तारीख ३ जुलाई, शुक्रवार का बाली से मिला हुआ सोलंकी राजा कुमारपालदेव के समय का है। यह यहां के माता के मंदिर के एक स्तंभ पर खुदा हुआ है और उसमें दंडनायक वैजल का उल्लेख है। (संदर्भ : एपिग्राफिका इंडिका जिला पृष्ठ ३३)


यहां प्रथम नाड़ोल के चौहानों का अधिकार था। बाद में जालोर के सोनगरा सरदारों का और उनके बाद मेवाड के राणाओं का अधिकार रहा। वि.स. १८२६ से १८३३ के लगभग में यहां एक छोटा किला बना, जो कस्बे के पश्चिम में सडक के लगते ही है। १२वीं सदी के बाली जैन मंदिर के शिलालेख से यहां सोलंकियों के शासन की पुष्टि होती है। इसी से इसकी प्राचीनता प्रकट होती है। बाली नगर और विस्तृत बालिया क्षेत्र की सुरक्षा हेतु नाडोल के राजा बालसिंहजी ने वि.सं. १६०८ में बाली नगर समीप बहनेवाली मिठडी नदी के तट पर दुर्ग (किला) की स्थापना की, जिसे बाद के राजाओं ने समय समय पर विस्तृत और सुदृढ़ किया। एक और जानकारी के अनुसार, इस मुख्य दुर्ग का निर्माण जोधपुर के शासकों ने सन् १५०२ ई. में करवाया था।


वर्तमान में दुर्ग राजस्थान सरकार के अधीन है। ऐसा भी कहते हैं कि अंग्रेजों के शासनकाल में इस दुर्ग में स्वतंत्रता सेनानियों को बंद रखा गया था, वर्तमान में इसमें सब जेल है। इसके अंदर एक ‘बाहुगण’ माता का प्राचीन मंदिर है, जो शीतला माता के मेले के दिन खुलता है एवं लोग दर्शन करते हैं। मेले के साथ गैर नृत्य भी होता है। स्वराज सत्याग्रह के दौरान बाली के लोकप्रिय स्वतंत्रता सेनानी स्व. श्री छोटमल सुराणा और उनके अनेक सहकर्मियों को इसी किले में नजरबंद रखा गया था।


बाली के विमलपुरा और गांधी चौक स्थित दोनों जिनालय स्थापत्य कला के उत्कृष्ट नमूने हैं और अपनी भव्यता एवं विशालता के लिए प्रसिद्ध है। श्री चंद्रप्रभ जिनालय राणकपुर शैली का गिना जाता है। श्री बाली जैन मित्र मंडल (मुंबई), श्री महावीर जैन युवक मंडल, श्री विमलनाथ जैन सेवा संघ, बाली यंगस्टर ग्रुप, श्री गौशाला पांजरापोल समिति, श्री ओसवाल भोजनशाला समिति, सेसली बोया पूनम ग्रुप आदि संस्थाएं धार्मिक, सामाजिक और सार्वजनिक कल्याण के कार्यों में सक्रिय हैं। नगर में जैन लायब्रेरी और वाचनालय की अच्छी व्यवस्था है। बाली के आधुनिक विकास में जैन समाज का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। अनेक दानवीर जैन परिवारों ने यहां के सर्वांगीण विकास में अपना सर्वस्व अर्पण किया है।


यहां स्कलू, कन्याशाला, चौपडा चिकित्सालय, अपर जिला एवं सत्र न्यायालय, शिशु कल्याण केंद्र, पशु चिकित्सालय, गौशाला, श्मशान घाट आदि अनेक संस्थाओं की स्थापना एवं संचालन में जैन संघ का सर्वाधिक योगदान रहा है। वर्तमान में १६०० जैन परिवार हैं और ७००० की जैन जनसंख्या है। बाली की कुल जनसंख्या २५००० के करीब है। बाली विधानसभा क्षेत्र है। बैंक, दूरसंचार, पुलिस थाना, होटल, डाकबंगला व विश्रांति गृह है। नगरपालिका बाली में सिंचाई एवं पेयजल की आपूर्ति जवाईबांध से होती हैं। श्री लावण्य धार्मिक पाठशाला व पुस्तकालय भी है।

१. श्री मनमोहन पार्श्वनाथ मंदिर: गोड़वाड की मरुभूमि में विख्यात बालीनगर, जो कभी ‘वल्लभी नगरी’ के नाम से जाना जाता था, लगभग २००० साल प्राचीन है। इसके मुख्य बाजार में पाश्र्वनाथ चौक स्थित विशाल, कलाकृति में अद्भुत, सौधशिखरी जिनप्रासाद में अति ही सौम्य व प्रभावशाली श्री मनमोहन पार्श्वनाथ प्रभु की श्वेतवर्णी, पदमासनस्थ, डेढ़ हाथ बडी (७८ से.मी.) प्रतिमा स्थापित है।


प्रभु प्रतिमा बाली से ३ कि.मी. दूर फालना सडक़ पर स्थित श्री सेलागांव के तालाब में से प्रकट हुई थी। प्रतिमा बडी ही चमत्कारी है। मंदिर की निर्माण शैली निराले ढंग की और अति सुंदर है। ऊंची कुर्सी पर भव्य शिखरवाला चैत्य है। प्रतिमा प्राप्ति की भी रोचक कथा है। कहते हैं कि लगभग २५० वर्ष पहले अधिष्ठायकदेव ने श्री गेमाजी श्रावक को स्वप्न में कहा कि सेलागांव के तालाब में पाशर्वप्रभु की प्राचीन चमत्कारी प्रतिमा है, जिसे यहां लाकर प्रतिष्ठित करो। स्वप्न के आधार पर तालाब की खुदाई होने पर प्रभु प्रतिमा व नवदुर्गा की नौ प्रतिमाएं प्राप्त हुई थी। प्रभु की प्रतिमा किसी गांव में मूलनायक के रूप में प्रतिष्ठित रही होगी। संभावना है कि यवनों के आक्रमण के समय प्रतिमा को बचाने हेतु धरती में गाड़ दिया गया हो और वही प्रतिमा खुदाई में प्राप्त हुई हो। प्रतिमा के प्राप्त होते ही सेला, बाली व अन्य गांवों के श्रावक वहां पहुंचे। सभी प्रतिमा को अपने यहां ले जाने की बात करने लगे। अंत में तय हुआ कि इस प्रतिमा को बैलगाडी में रख दो और बैल जहां भी प्रतिमा को ले जाएंगे, वहां प्रतिमा को प्रतिष्ठित कर दिया जाएगा। बैलगाडी प्रभु प्रतिमा को लेकर बाली बाजार पहुँची और रूक गई। बहुत जोर लगाया गया, मगर गाडी आगे नहीं बढी। श्री संघ ने समझा कि शासनदेव की इच्छा इसी स्थान पर प्रतिमा को विराजमान करने की है। यह समझकर प्रतिमा को वहीं पर रखा गया।


ओसवाल हथुंडिया राठौड़ कुलभूषण गेमाजी व ओटाजी दोनों भाइयों ने वि. स. १८२० में जिनमंदिर का निर्माण करवाकर प्रतिमा को प्रतिष्ठित किया। इन्हीं के वंशज गेमावत कहलाए, जो बाली, साण्डेराव व शिवगंज में मौजूद हैं और स्वयं को गेमाजी का वंशज बताते हैं। किसी किसी का यह भी कहना है कि बाली का किला और यह मंदिर समकालीन है। इसके प्रतिष्ठाकार संड़ेरकगच्छीय आ. श्री यशोभद्रसूरिजी महाराज हैं। प्रतिष्ठा के साथ ही बाली श्री संघ की बडी वृद्धि होती आ रही है। कालांतर में यह मंदिर जीर्ण- शीर्ण हो गया था। बाली के उपकारी गुरु लावण्य विजयजी की आज्ञा से मु.श्री वल्लभदत्तजी ने अपनी देखरेख में इसका जीर्णोद्वार कराया व श्री संघ ने आ. श्री सुशीलसूरिजी के कर कमलों से, इसकी प्रतिष्ठा वीर नि. सं. २५०५, वि. सं. २०३५, वैशाख सुदि ६ बुधवार दि. २ मई १९७९ को धूमधाम से संपन्न करवाई।


ध्वजा का लाभ श्री पुखराजजी हजारीमलजी गेमावत एवं श्री लालचंदजी रामचंदजी गेमावत ने लिया। मंदिर में प्रतिष्ठित एक पाशर्वनाथजी की प्रतिमा वि. सं. १९५१,माघ सु. ५ गुरुवार को वरकाणा प्रतिष्ठोत्सव में भट्टारक आ. श्री राजसूरिजी के हाथों अंजनशाला प्राण प्रतिष्ठा की गई। दूसरी ओर आदेश्वर भगवान पाशर्वनाथ व गुरु प्रतिमा तथा अधिष्ठायकदेव प्रतिमा की प्रतिष्ठा वीर नि. स. २४७६, वि. सं,. २००७, ज्येष्ठ शुक्ल ५ सोमवार को वल्लभसूरिजी पट्टधर शिष्य श्री ललितसूरिजी के शिष्य सादडी रत्न पंडितरत्न पंन्यास पूर्णानंदविजयी गणि के हाथों हुई है। एक और श्यामवर्णी पार्श्वनाथ प्रभु की प्रतिमा की अंजनशलाका आ. श्री वल्लभसूरिजी के हाथों वि. सं. २००६ के मगसर सुदि ६, शुक्रवार को बीजापुर के (मारवाड) प्रतिष्ठोत्सव में हुई है। वि. स. २०१४ में लावण्य पौषधशाला का श्री वल्लभदत्त वि. के उपदेश से निर्माण व वि. सं २०६२ मे इसका जीर्णोद्वार संपन्न हुआ।


२. श्री चंद्रप्रभस्वामी मंदिर :  जैनियों की संख्या में वृद्धि के साथ ओसवाल श्री संघ ने भव्य त्रिशिखरीय जिनालय निर्माण का निश्चय किया। सौभाग्यवश बाली में मु. श्री मेरु वि. व श्री देव वि. का चातुर्मास हुआ। (वर्तमान में दोनों आचार्य नीति समुदाय में)। गुरु प्रेरणा पाकर संघ ने श्री धनरूपजी भेराजी बागरेचा की देखरेख में ६-७ वर्षों में श्राविक उपाश्रय की जगह पर पाषाण कलाकृति का उत्कृष्ट जिनालय निर्माण करवाया। पंजाब केसरी आ. श्री वल्लभसूरिजी एवं मु. श्री हिंकारविजयी (दोनों ही सादडी रत्न) आ. ठा. की निश्रा में वीर नि. स. २४७६, शाके १८७१, वि. सं. २००६ , जेठ सुदि ५, सोमवार जून १९५० को शुभ मुहूर्त में अंजनशलाका प्रतिष्ठा महोत्सव संपन्न हुआ। मूलनायक ध्वजा का लाभ श्री खीमराजजी वनाजी चोपडा परिवार ने लिया।


गुरु मंदिर : श्री चंद्रप्रभु जिनालय के तलघर में नवनिर्मित गुरु मंदिर में पंजाब केसरी आ. श्री वल्लभसूरिजी के शिष्य आ. श्री. ललित सूरिजी के शिष्य पंडित रत्न पंन्यास श्री पूर्णानन्द सूरिजी एवं मु. श्री वल्लभदत्त विजयजी (फक्कड़), नाकोडा भैरूजी व घंटाकर्ण महावीरजी की प्रतिष्ठा आ. श्री शांतिदूत पू. नित्यानंदसूरिजी की निश्रा में वीर नि. सं. २५१९, विक्रम सं. २०५०, ज्येष्ठ शु. ११ सोमवार, दि. ३१.५.१९९३ को संपन्न हुई। बाद में वि. स. २०५२ में आ श्री नित्योदयसागरसूरिजी के हस्ते माता पद्मावती व महालक्ष्मी देवी, श्री नाकोडा भैरूजी, श्री घंटाकर्ण महावीर की प्रतिमाएं स्थापित की गई। यहां नाकोडा भैरूजी की मूर्ति को जनेऊ पहनाई हुई है, जो अन्यत्र कहीं देखने में नहीं आती।


चन्द्रप्रभ जैन मंदिर स्वर्ण जयंती: आ. श्री वल्लभसुरि पट्टधर परंपरा में श्रुत्भास्कर आ. श्री. धर्मधुरंधरसूरिजी के सानिध्य में वीर नि.स. २५२६, शाके १९२१, वि.सं. २०५६, जेठ सु. ५, मंगलवार दि. ६ जून २००० को स्वर्ण जयंती व ध्वजा महोत्सव संपन्न हुआ।


3. श्री विमलनाथ मंदिर : भव्य-दिव्य व उत्कृष्ट श्वेत पाषाण से निर्मित त्रिमंजिली शिखरबंध जिनालय में वर्तमान मूलनायक श्री विमलनाथ स्वामी की आकर्षक प्रतिमा प्रतिष्ठित है। पोरवाल संघ का यह जिनालय, २००० वर्ष पूर्व पांडव वंशज राजा गंधर्वसेन (गर्धभिल्ल) का बनाया हुआ माना जाता है। इसका जीर्णो द्वार वि. सं. १०४० में हुआ था। पहले यहां मूलनायक श्री शांतिनाथ प्रभु थे, जो वर्तमान में दूसरी मंजिल पर स्थापित हैं। ६०० वर्ष पहले वि. सं. १५०० के जीर्णोद्धार बाद यहां मूलनायक श्री ऋषभदेव प्रभु की एक हाथ प्रमाण की श्वतेवर्णी प्रतिमा स्थापित हुई। जो जगद्गुरु अकबर प्रतिबोधक आ. श्री हीरसूरिजी के हाथों प्रतिष्ठित है। पहले यह जिनालय ओसवाल व पोरवाल दोनों समाज का संयुक्त जिनालय था।


वर्तमान में यह प्रतिमा प्रथम मंजिल पर प्रतिष्ठित है। संघ ने वाद-विवाद व अशांति जैसी हालत में अंतिम जीर्णोद्धार के बाद वि. सं. २००६ में मूलनायक के रूप में विमलनाथ स्वामी को विराजमान किया। कहते हैं कि यह मंदिर पहले ५२ जिनालय था, पर भमती में प्रतिमाएं प्रतिष्ठित नहीं हुई थी। भोयरे में चार बडी प्राचीन प्रतिमाएं प्रतिष्ठित है।


१. राता महावीर प्रभु की सुनहरी व अतिसुंदर प्रतिमा दर्शनीय है। २. श्री सुपाशर्वनाथजी ३. वासुपूज्यस्वामी व ४. इस प्रतिमा पर लाछन नहीं है। मंदिर में संवत ३०० का लेख है। भोयरे में शीतलनाथजी प्राचीन हैं।


करीब १०० वर्ष पहले जमीन खोदते हुए सोने के सिक्के (इस आकृति के) आठ आनी, चार आनी तथा दो आनी चांदी की निकली थी, जिनके ऊपर अक्षर भी खुदे हैं, पर बराबर पढ़ने में नहीं आते हैं।


४. श्री सुपाशर्वनाथजी मंदिर: श्री आनंदराजजी गेमावत के घर के सामने गुरुभक्त श्री कुंदनमलजी ताराचंदजी परिवार द्वारा निर्मित इस सुंदर जिनालय में त्रिस्तुतिक परंपरा के पट्टधर व्याख्यान वाचस्पति आ. श्री यतींद्रसूरिजी आ.ठा. के वरद हस्ते यहीं के चातुर्मास बाद वि. सं. २००६ , मार्गशीर्ष शु. ६, शुक्रवार ई. सन् १९५० को नवनिर्मित वासुपूज्य मंदिर में नूतन प्रतिमाओं व गुरुबिंब की अंजनशलाका एवं मार्गशीर्ष शु. १०, बुधवार को प्राचीन धातु के परिकर के साथ प्रभु श्री सुपाशर्वनाथ स्वामी की प्रतिमा व श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी की गुरु प्रतिमा की सह समारोह स्थापना की गई। इसी दिन कुंदनमलजी की सुपुत्री लीलावती का विवाह संपन्न हुआ था। यानी सुबह प्रतिष्ठा व शाम को विवाह किया था। इसके पहले आचार्य श्री का चातुर्मास हेतु आषाढ़ शु. १० को भव्य मंगल प्रवेश हुआ था।


५. श्री संभवनाथजी मंदिर: बाली से फालना जाने वाली मुख्य सडक पर नगर के बाहर सत्र न्यायालय के सामने श्रेष्ठिवर्य पृथ्वीराजजी गमनाजी पंचम गोत्र परमार परिवार द्वारा छोटे भ्राता मोहनलालजी पृथ्वीराजजी की स्मृति में उनकी निजी जमीन पर निर्मित शिखरबंध जिनमंदिर में मूलनायक श्री संभवनाथस्वामी आदि जिनबिंब व यक्ष- यक्षिणी प्रतिमाओं की अंजनशलाका प्रतिष्ठा पंजाब केसरी प. पू. आ. श्रीमद् वल्लभसूरीश्वरजी म. सा. के शिष्यरत्न प. पू. आचार्य भगवंत श्री पूर्णानंदसूरीश्वरजी के पावन सानिध्य वि. सं. २०२८, गुरुवार को महोत्सव पूर्वक हर्षोल्लास से संपन्न हुई।


६. श्री धर्मनाथजी मंदिर: यतिजी के उपाश्रय में शिखरबंधी मूलनायक श्री धर्मनाथस्वामी का वि. स. १९५० में निर्मित मंदिर की प्रतिष्ठा यतिवर्य श्री त्रिलोकसागरजी ने निर्माण करवाकर की। धर्मनाथ जिनालय का जीर्णोद्धार उपकारी गुरुदेव मुनिश्री वल्लभदत्त विजयजी के उपदेश से बाली संघ ने संवत् २०२१ में करवाया और पुन: प्रतिष्ठा करवाई गई।


७. श्री गौतमस्वामीजी दादावाडी: बाली से सेसली जाने वाले मार्ग पर विशाल दादावाडी भवन में प्रथम मंजिल पर गुरु मंदिर में गुरु गौतम स्वामी की १८ अभिषेक करवाकर भव्य प्रतिमा दि. २६.०५.१९८९ को स्थापित की गई, जिससे वासक्षेप पूजा हो सके। करीब ९० वर्ष पहले पानी की विकट समस्या को ध्यान में रखकर दादावाडी का निर्माण हुआ, जिससे सभी को पानी की पूर्ति यहां से होने लगी। कालांतर में आसपास की भूमि क्रय करके विस्तार किया गया। शादी- विवाह व धार्मिक कार्यक्रम हेतु कबूतरखाने का निर्माण करवाकर दि. १५.०९.२००२ को उद्घाटन किया गया। पुन: इसका जीर्णोद्धार करवाकर सं. २०६५, पौष वदि १३, गुरुवार दि. २५.१२.२००८ को श्री बस्तीमलजी कालूरामजी राठौड के हस्ते इसका उद्घाटन संपन्न हुआ। इस प्रसंग के नवालिका महोत्सव पर आ. श्री विश्वचंद्रसूरिजी कालूरामजी राठौड़ के हस्ते इसका उद्घाटन संपन्न हुआ। इस प्रसंग के नवाहिका महोत्सव पर आ. श्री विश्वचंद्रसूरिजी आ. ठा. व मुनिश्री जयानंद विजयजी म.सा. पधारे थे।


८. श्री मणिभद्र दादा मंदिर: नयापुरा में बायो के उसाश्रय में प्रतिष्ठि माणिभद्रवीर की मूर्ति अत्यंत ही चमत्कारी है।


९. श्री गौशाला पांजरापोल: यहां गौशाला करीब ६० वर्ष प्राचीन है, जिसका संचालन ओसवाल एवं पोरवाल समाज संयुक्त रूप से करते हैं। वर्तमान में करीब ५०० पशुओं की सेवा शुश्रुषा हो रही है।


१०. पंचम अतिथि भवन: पंचम मंच बाली द्वारा नगर के मध्य भाग में समाज बंधुओं के उपयोग हेतु अतिथि भवन का निर्माण करवाया जा रहा है, जिसमें सर्व सुविधायुक्त करीब १८ कमरे बनाए जाएंगे।


११. निर्माणाधीन सूरिमंत्र मंदिर: श्री सूरि महामंत्र मंदिरम् ट्रस्ट बाली द्वारा हिन्दुस्तान का प्रथम मूर्ति आकार में सूरिमंत्र मंदिर का निर्माण करवाया जा रहा है। ४ वर्ष पूर्व श्रुतभाष्कर आचार्य भगवंत श्री धर्मधुरंधरसूरीश्वरजी की प्रेरणा से एवं ३ वर्ष पूर्व वर्तमान गच्छाधिपति आ. भ. रत्नाकर सूरीश्वर जी म.सा. एवं श्रुतभाष्कर आ. भ. श्री धर्मधुरंधरसूरीश्वरजी की निश्रा में शिलान्यास विधि संपन्न हुई। इस निर्माणाधीन शिखरबद्ध जिनालय में २४ तीर्थंकर, ११ गणधर, ६४ इन्द्र इन्द्राणी, २४ यक्ष यक्षिणी, नवग्रह, १६ देवी, सूरिमंत्र की ५ पीठिका सरस्वती, त्रिभुवनस्वामिनी महालक्ष्मी (श्री देवी) गणिपीठ यक्ष, माणिभद्रवीर, गौतमस्वामी आदि की मूर्तियां विराजमान होंगी। संगमरमर पाषाण से निर्मित होने वाले इस जिनालय में एक ही शिखर होगा और एक ही ध्वजा होगी, जो इसकी विशेषता होगी। समवसरण आकार में मूर्तियां विराजमान होंगी। कल्पवृक्ष भी होगा। निर्माण कार्य प्रगति पर है। संवत् २०७१ वैशाख माह में भव्य पतिष्ठा संपन्न होगी।


बाली के संयमी रत्न: जिनशासन को समर्पित बाली के करीब २८ (९ श्रावक + १९ श्राविका) अनमोल रत्नों ने संयम लेकर स्वयं के साथ साथ कुल एवं नगर का नाम रोशन किया है। सं. १९५९ के फाल्गुन शु. को विश्वपूज्य श्रीमद् विजय राजेद्रसूरिजी आ.ठा. १५ ने बाली में अष्टाहिन्का महोत्सवपूर्वक पिता टेकचंदजी बिरावत व माता पानी बाई के पुत्र चंदनमल को दीक्षा प्रदान कर मु. श्री चंद्रविजयजी नाम रखा। इस महोत्सव में अन्य दो भाविकों को भी दीक्षा देकर मु. श्री नरेन्द्र वि. व मृगेंद्र वि. नामकरण किया गया।


वि.स. १९७६ के सादडी चातुर्मास के बाद आ. वल्लभसूरिजी ने वि. सं. १९७७ मार्गशीर्ष वदि २ को श्रीयुत कपूरचंदजी और गुलाबचंदजी बाली निवासी ओसवालों को दीक्षा प्रदान कर क्रमश: मु. श्री देवेन्द्र वि. मु. श्री उपेन्द्र वि., नामकरण किया एवं मार्गशीर्ष वदि श्री ललित वि., उमंग वि., विद्या वि. को गणि व पन्यास पद प्रदान किया। वि. स. १९८६ में श्री खेमचंदजी हजारीमलजी राठौड ने पू. आ. श्री नेमिसूरिजी के शिष्य आ. श्री अमृतसूरिजी के पास दीक्षा ली व नामकरण मु. श्री खांतीविजयजी हुआ। आप ही के लघु भ्राता नवलमलजी ने वि. सं. १९९१ वै व. २ को शासन सम्राट श्री नेमिसूरिजी के हस्ते श्री कदंबगिरी तीर्थ पर दीक्षा लेकर मु. श्री निरंजनविजयजी बने व वडिलबंधु मु.श्री खांती वि. के शिष्य बने। मु. श्री खांती विजयजी वि. स. २०२१ फा. सु. १३ को बाली में स्वर्गवासी हुए। इसके अलावा आ. श्री रत्नसेनसूरीश्वरजी म.सा., मु. श्री निर्वाणशय वि. मु. श्री संयम कीर्ति वि. एवं अनेक साध्वी भगवंतों ने दीक्षा लेकर स्वयं के जीवन को धन्य बनाया।


अहमदाबाद - मुंबई रेलवे मार्ग को ब्रॉडगेज में रुपातंर करवाने, विभिन्न नई यात्री गाडिय़ों को चलवाने, आरक्षण सुविधा तथा विभिन्न यात्री सुविधाओं के लिए प्रयासरत राजस्थान मीटर गेज प्रवासी संघ के तीनों संस्थापक सदस्य श्री विमलजी एम.रांका, श्री कांतिलालजी सी. जैन और श्री लब्धिराजजी जैन बाली के ही हैं।


मार्गदर्शन: नजदीक का रेलवे स्टेशन फालना मात्र ६ कि.मी. और जोधपुर हवाई अड्डा १५० कि.मी. दूर है। फालना से राणकपुर जाने वाली मुख्य सडक़ पर नगर स्थित होने से सरकारी व प्रायवेट बस, टैक्सी, ऑटो सभी आवागमन के साधन उपलब्ध हैं। राणकपुर यहां से ३० किमी., राता महावीरजी २२ कि.मी. और मुछाला महावीर ३६ कि.मी. दूर स्थित है। सुविधाएं : साधु साध्वियों हेतु १०-१२ छोटे—छोटे उसाश्रय व आराधना भवन, श्री लावण्य पौषधशाला, मीठी मां आराधना भवन व अतिथि भवन, न्याति नोहरा, दादावाडी में रहने की सुविधा उपलब्ध है। भोजनशाला व आयंबिल की उत्तम सुविधा है। वर्धमान आयंबिल भवन का भी निर्माण हुआ है। श्री बोया तीर्थ एवं सेसली तीर्थ श्री ओसवाल श्वे. मू. पू. तपागच्छ जैन संघ, बाली के अधीन हैं। संघ ही इन दोनों तीर्थों की व्यवस्था संभालता हैं।

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