


बागोल

राजस्थान प्रांत के पाली जिले में जोधपुर उदयपुर (मेगा हाईवे) राज्य महामार्ग नं. 67 पर देसुरी से फुलाद जाने वाली मुख्य सडक़ पर देसुरी से 16 कि.मी. दूर अपने भव्य विरासत एवं ऐतिहासिक गरिमा को समेटे हुए अरावली पर्वतमाला की गोद में बसा है गांव बागोल। बागोल में दो जैन मंदिर हैं, जिनमें श्री चिंतामणि पार्श्वनाथ मूर्ति (1700 वर्ष प्राचीन) की गरिमा का जाज्ज्वल्यमान इतिहास है। दुनिया भर में जिन शासन प्रभावक क्षेत्र के सभी पाश्र्वनाथ भगवान की प्रतिमाओं से यह प्रतिमा अत्यन्त प्राचीन, अदभुत, अलौकिक, अद्वितीय एवं भिन्न है। स्पष्ट भिन्नता यह है कि मूर्ति की दोनों भुजाओं से ऊपर उठे हुए दो नाग फन निकले हैं, जो मूर्ति के पीछे खड़े शेषनाग के फन को सहारा देते हुए लगते हैं। वर्तमान में संपूर्ण भारतवर्ष में भगवान पार्श्वनाथ के छत्र बने शेषनाग को अकेला ही दर्शाया गया है। नगरवासी नहीं जानते कि यह अद्भुत और दिव्य प्रतिमा कहां से आई, लेकिन कुछ वरिष्ठ श्रावक यह बताते हैं कि मूर्ति बाहर से आई थी और अंजनशलाका की हुई थी एवं एक गृह मंदिर में ही इस प्रतिमा की पूजा होती थी। जैन तीर्थ सर्वसंग्रह ग्रंथ के अनुसार, श्री श्री संघ ने वि. सं. 1900 के लगभग शिखरबद्ध जिनालय का निर्माण करवाकर मु. श्री पार्श्वनाथ सह पाषाण की एक और धातु की 4 प्रतिमाओं को प्रतिष्ठित किया। उन दिनों यहां 160 जैन घर तथा एक उपाश्रय भी था।
अतीत से वर्तमान: समय के साथ जिनालय जीर्ण अवस्था में पहुंच गया। गुरुदेव की प्रेरणा पाकर श्री संघ द्वारा संपूर्ण जीर्णोद्धार करवाकर कलात्मक जिनप्रासाद में वीर वि. सं. 2478, शाके 1873, वि. सं. 2008, माह सुदि 6, भृगुवार, फरवरी 1952 को प्रतिष्ठा शिरोमणि, गोड़वाड़ जोजावर रत्न, शासन प्रभावक आ. श्री जिनेंद्रसूरिजी आ. ठा. की पावन निश्रा में जीर्णोद्धारित जिनालय में श्वेतवर्णी 27 इंची, पद्मासनस्थ प्राचीन प्रगट प्रभावी मूलनायक श्री चिंतामणि पार्श्वनाथ, विमलनाथ, सुपापार्श्वनाथादि जिनबिंबों, अधिष्ठायकदेव-देवी, यक्ष-यक्षिणी, गुरुदेव श्री जगद्गुरु शांतिसूरिजी, श्री धर्मसूरिजी गुरुबिंबों की प्रतिष्ठा, महोत्सवपूर्वक संपन्न हुई।
श्री स्वर्ण महोत्सव: जिनालय की 50वीं वर्षगांठ (स्वर्ण जयंती) के अवसर पर पूज्य आचार्य श्री पद्मसूरिजी आ.ठा. 5. साध्वीजी श्री ललितप्रभाश्रीजी (लेहरो म.सा.) आ. ठा., सा. श्री आनंदश्रीजी आ. ठा. सह चतुर्विध संघ की उपस्थिति में पंचाह्निका महोत्सव वीर नि. सं. 2527, शाके 1922, वि. सं. 2057, माघ शु. 6, मंगलवार, दि. 30.1.2001 को संपन्न हुआ। प्रतिवर्ष ध्वजा श्री भंवरलालजी वरदीचंदजी कोठारी परिवार चढ़ाते हैं। सं. 2008 की प्रतिष्ठा पर 40 जैन घर थे। आगे बढ़ते हुए आज 170 घर औली (होती) है। महोत्सव के दूसरे दिन यानि माघ शु. 7, बुधवार दि. 31.1.2001 को दूसरे श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ जिनमंदिर की पांचवीं वर्षगांठ पर ध्वजारोहण संपन्न हुआ।
कालांतर में जीर्ण बने गांव के मध्य स्थित इस जिनालय का आमूलचूल नूतन जीर्णोद्धार संपन्न करवाकर इस शुभ स्वर्णिम अवसर पर श्री संघ द्वारा आ. श्री पद्मसूरिजी आ. ठा., सा. श्री ललितप्रभाश्रीजी आ. ठा. की पावन निश्रा में वीर नि. सं. 2535, शाके 1930, वि. सं. 2065, जेठ वदि 11, बुधव दि. 20.5.2009 को पंचाह्निका महोत्सव की कलश स्थापना श्री लघुशांतिस्नात्र महापूजन विजय मुहूर्त में पूर्ण हुआ। जिनालय में सोने से युक्त की गई कलात्मक कोरणी उत्कृष्ट और देखने लायक है। इस अवसर पर जैनम् बागोल-2009 पता निर्देशिका का विमोचन हुआ। सं. 2008 की प्रतिष्ठा के समय अपार जनसमूह के आगमन से लापसी कम पडऩे लगी। संकट की घड़ी में आचार्य श्री जिनेंद्रसूरिजी ने लापसी की कढ़ाई पर वासक्षेप कर सफेद कपड़ा बंधवाया और एक कोने से लापसी का वितरण करने के लिए कहा। सभी को प्रसादी का लाभ देने के बाद कढ़ाई से कपड़ा हटाया तो कढ़ाई में लापसी उतनी ही थी। इस चमत्कार से सभी अत्यंत प्रभावित हो गए। उपधान तप: वि.सं. 2015 में विद्यानुरागी, वचनसिद्ध आचार्य श्री जिनेंद्रसूरिजी की निश्रा में महामंगलकारी उपधान तप के शुभ प्रसंग पर आचार्य श्री ने गंभीर वाणी से कहा कि इस गांव में सवा सौ जैनों के घर होने पर दूसरा भव्य जिनमंदिर बनेगा। आपश्री की यह भविष्यवाणी कालांतर में सच साबित हुई और तब दूसरे मंदिर की नींव रखी गई। वर्तमान में यहां 160 जैन घर हैं।
श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ नूतन जिनमंदिर : देसुरी से जोजावर जाते समय नगर प्रवेश के नुक्कड़ पर स्व. शा. कुंदनमलजी ताराचंदजी शंखेश्वरा सोलंकी परिवार द्वारा नवनिर्मित नूतन आरस पाषाण का गगनचुंबी शिखरबद्ध अद्वितीय भव्यतम (38.25 फुट की ऊंचाई) की उत्कृष्ट कोरणी से युक्त भव्य-दिव्य जिनप्रासाद में 23वें तीर्थंकर श्री शंखेश्वर पाश्र्वनाथ प्रभु की परिकरयुक्त सुंदर प्रतिमा प्रतिष्ठित है।
अतीत से वर्तमान : वि.सं. 1071, वैशाख सुदि 3 को सेठ नागराजजी ने धार्मिक समृद्धि संपन्न श्री शांतिसूरिजी जैनाचार्य (नाना गच्छ वाले) के उपदेश से जैन धर्म स्वीकारा और नागोदरा सोलंकी कहलाए। वि. सं. 1343, चैत्र सुदि-15 के शुभ दिन सेठ समधरजी ने अपने पिता खरताजी के पुण्य निमित्त पाटण से श्री शंखेश्वरा पार्श्वनाथ तीर्थ का संघ निकाला तथा उसी परिवार के सेठ सोहनपालजी ने मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया और तब से यह परिवार शंखेश्वरा सोलंकी कहलाने लगा। बाद में यह परिवार पाटण सिरोही व उदयपुर होते हुए वि. सं. 1844 में ताराजी व उदाजी के परिवार वाले गाँथी गांव में आए और बाद में बागोल में आकर स्थायी हो गए।
श्री ताराचंदजी सोलंकी के परिवार में स्व. कुंदनमलजी के सुपुत्र चंपालालजी को एक रात स्वप्न में श्री चिंतामणि पार्श्वनाथ (बागोल मूलनायक) के साक्षात् दर्शन हुए। उन्होंने सुबह परिवार वालों से स्वप्न दर्शन की चर्चा करके जिनमंदिर निर्माण का निश्चय किया। वि.सं. 2049, वैशाख सुदि 14, दि. 5.5.93 को श्री कोट सोलंकियान तीर्थ की प्रतिष्ठा महोत्सव प्रसंग पर पधारे हुए आचार्य श्री पद्मसूरिजी से श्री चंपालालजी ने अपने स्वप्न दर्शन की बात बताई। आचार्य श्री ने आशीर्वाद दिया तथा संघ की सहमति लेते हुए वीर नि. सं. 2519, शाके 1914, वि. सं. 2049 श्रावण सुदि 10, दि. 28.7.1993 को खनन मुहूर्त तथा वि. सं. 2050, मगसर वदि 5. नवंबर 93 को श्री चतुर्विध संघ की उपस्थिति में आचार्य श्री पद्मसूरिजी की निश्रा में शिला स्थापना कार्यक्रम संपन्न हुआ। दो वर्ष तक निरंतर कार्य से जिनालय तैयार हो गया।
प्रतिष्ठा: विशाल तथा गजलक्ष्मी से शोभित भव्य प्रवेशद्वार वाले कलात्मक जिनप्रासाद में मूलनायक श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ, श्री आदिनाथ, श्री महावीर स्वामी तथा अधिष्ठायकदेव- देवी, यक्ष-यक्षिणी प्रतिमाओं की अंजनशलाका प्रतिष्ठा वीर नि. सं. 2522, शाके 1917, वि. सं. 2052, माघ शुक्ल 7, शुक्रवार, गणतंत्र दिवस 26 जनवरी 1996 को मंगल मुहूर्त में नवाह्निका महोत्सवपूर्वक ज्योतिष शिल्पज्ञ, क्रियादक्ष व सूरिमंत्र समराधक पूज्य आचार्य श्री पद्मसूरिजी आ. ठा. 4, केसरसूरि समुदायवर्ती साध्वी श्री विरतिधराश्रीजी आ. ठा. 3, नीति समुदायवर्ती गोड़वाड़ दीपिका साध्वी श्री ललितप्रभाश्रीजी (लेहरो म. सा.) आ. ठा. 9 सह चतुर्विध संघ की उपस्थिति में संपन्न हुई। श्री पाश्र्वनाथ जैन मंडल सहयोगी संस्था है।
दीक्षा महोत्सव : पूज्य गच्छाधिपति आचार्य श्री अरिहंतसिद्धसूरिजी की पावन निश्रा में मुमुक्षु सरोजकुमारी की प्रव्रज्या (दीक्षा) वि. सं. 2046 को मगसर सु. 11, बुधवार दि. 28.11.1990 को संपन्न हुई व सा. श्री शासनरत्नाश्रीजी नामकरण प्रसिद्ध हुआ। बागोल नगर से पूज्य मुनि श्री प्राज्ञरतिविजयजी म.सा., सा. श्री शासनप्रभाश्रीजी, पूज्य साध्वी श्री शासनरत्नाश्रीजी, पूज्य साध्वी श्री संवेगवर्षाश्रीजी की दीक्षाएं संपन्न हुई हैं। यहां का श्री कुंभेश्वर महादेव मंदिर प्रसिद्ध है। यहां प्रतिवर्ष चैत्र मास में भव्य मेला लगता है। गांव की कुल जनसंख्या 10,000 है। यहां आधुनिक सभी सुविधाएं उपलब्ध हैं।
मार्गदर्शन : बागोल रानी व फालना रेलवे स्टेशन से 50 कि.मी., फुलाद स्टेशन से 35 कि.मी., मारवाड़ जंक्शन से 52 कि.मी.और देसुरी बस स्टैंड से 17 कि.मी. दूर स्थित है। यहां के लिए प्रायवेट बस, टैक्सी, ऑटो आदि परिवहन सुविधाएं उपलब्ध हैं। सुविधाएं : श्री पार्श्वनाथ पेढ़ी भवन, आराधना भवन, जैन न्याति नोहरा, उपाश्रय भवन, धर्मशाला, आयंबिल भवन तथा उत्तम भोजनशाला की सुविधा है। यहां से 9 कि.मी. दूर श्री सुमेर तीर्थ पर भी सारी सुविधाएं हैं।