मानव के विकास के चिंतन को छोड प्रकृति के विकास का चिंतन करना होगा। प्रकृति के विकास का चिंतन करने मात्र से कुछ नहीं होगा। प्रकृति का विकास और उसकी पूर्ण सुरक्षा ही हमारा ध्येय होना चाहिए। बहुत दिनों बाद एक गोरैया (चिडिया) दिखी गाँव खेडे- जंगल में तो आज भी फुदकती, – चहकती दिखाई देती लेकिन लगता है गोरैया ने अब शहर में आना-रहना छोड सा दिया है। कभी बगीचे-आंगन-कमरे खिडक़ी पर बेफिक्र सी चहकती-फुदकती या घर में लगे दर्पण पर में दिखाई देने वाले अपने ही प्रतिबिंब पर बार-बार चोंच मारती गोरैया शहरनुमा सीमेंट कांक्रिट के जंगल से दूर गाँव खेड़े के असली जंगल में चली गयी है? गोरैया अब शहर लौटेगी या नहीं? आंगन-खिडक़ी-कमरे में उसका चहकना-फुदकना अब एक सपना या दंत कथा तो नहीं रह जाएगी गोरैया?
आदमी की दुनिया में पशू-पक्षी, पेड़-पौधों के लिए अब कोई जगह ही नही बची। पगडंडी रास्तों या घरों के आसपास पेड़-पौधे और जो घने वृक्ष थे उन्हें आदमी ने अपनी-सुख-सुविधा और अपने विकास के लिए उन्हें देश निकाला दे दिया, जो नहीं माने उनकी सरे-आम हत्या कर दी गई। पीढिय़ों से लहलहाते पेड़ पौधे-विशाल वृक्ष मानव की विकास यात्रा में बली चढ़ गए। जब इनकी हत्या हो गई तो बिचारे पशु-पक्षी व अन्य प्राणी भी शहर से पलायन कर गए। अब मानव उन जंगलों पर अपनी हत्यारी-आँख गडाए हुए है जो इनका (पशु-पक्षी व अन्य जीवों का) आश्रम स्थल है। उनका आश्रय स्थल छीन अपनी सुख-सुविधा के सामान बना रहा है। दूसरों का सब कुछ छीन स्वयं सुखी होने को ही अब शायद विकास कहा जाता है?
आदमी प्रकृति का दुश्मन है? प्रकृति का हर प्रकार से दोहन कर, सुख-सुविधा, ऐशो-आराम के संसाधनो का अधिकाधिक संग्रहण करने में जुटा आदमी आज सचमुच ही प्रकृति का दुश्मन प्रतीत हो रहा है। पेट्रोल-डीजल-गेस व अन्य रासायनिक पदार्थो के प्रयोग से एक और जहाँ जहरीली ‘गेसÓ (हवाएं) धरती के वायु मंडल को बुरी तरह से प्रदुषित कर रही है वहीं आम आदमी के स्वास्थ्य पर इसका बुरा असर, नई-नई बीमारियों के रुप में नजर आने लगा है। कई तरह की असाध्य बीमारियों ने पूरे विश्व को अपनी गिरफ्त में ले लिया है। पेय जल प्रदुषित होता जा रहा है। नगरों की गंदगी, कारखानों से निकलने वाले अपशिष्ट पदार्थो के नदियों में मिलने से शुद्ध पेयजल की लगातार कमी होती जा रही है। पेट्रोल-डीजल और कारखानों -फेक्ट्रियों से निकलने वाले धुएँ से सारा वायुमंडल प्रदूषित तो है ही, ‘ओजोनÓ की परत में छेद होने से धरती पर अनेकानेक कष्ट प्रद स्थितियाँ निर्मित हो गई है।
रासायनिक उर्वरको के अत्यधिक प्रयोग से धरती की उपजाऊ क्षमता धीरे-धीरे कम होती जा रही है। अधिकाधिक नलकुपो के खनन से भूमि का जलस्तर नीचे और नीचे होता जा रहा है, रासायनिक पदार्थो के प्रयोग से धरती का तापमान अत्यधिक बढने लगा है। ‘ग्लोबल वार्मिंगÓ के कारण हिमालय व अन्य पर्वतों पर जो हिमनद (ग्लेशियर) है वे अत्यधिक तीव्र गति से पिछलते जा रहे हैं। गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र जैसी बड़ी नदियां धीरे-धीरे सूखती जा रही है। वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि आनेवाले ३०-४० साल बाद विश्व में पेयजल का संकट गहरा हो जाएगा। ग्लोबल वार्मिंग के कारण ही अंटार्कटिक दक्षिणी ध्रुव और उत्तरी ध्रुव सहित हिमखंड पिघलने के कारण समुद्र की सतह बढ़ सकती समुद्र को सतह बढने के समुद्र अपनी मर्यादा तोडकर समुद्र के किनारे स्थित बडे-बडे महानगरे के पूर्णत: नहीं तो ७० प्रतिशत ७५ प्रतिशत तक नष्ट कर सकता है। अब भी नहीं चेते तो फिर कब चेतेंगे। जिस हमने नष्ट किया है तो अब नया बनाना पडेगा। प्रकृति की ओर लौटना पडेगा।
पिछले दिनों एक विज्ञान पत्रिका में मन को गहरा आघात पहंूचाने वाली रिपोर्ट पढ़ी। वैज्ञानिकों का स्पष्ट मत है कि सन् २०५० तक एशिया के देशों में भयंकर खाद्यान्न संकट से आधी से अधिक आबादी ‘भूखÓ के कारण नष्ट हो जाएगी। मुझे यह रिपोर्ट पढक़र आज से छ: हजार साल पूर्व राजस्थान मरुभूमि नहीं था। चने थे, चारों और हरियाली थी। उन दिनों इस प्रदेश में सरस्वती नदी बहा करती। सरस्वती, सिंधु नदी से भी बड़ी नदी है। अम्बाला के आस-पास होती हुई कच्छ की खाडी में समुद्र से मिल जाती थी। कच्छ की खाडी में भूकंप आने के कारण मुहाना बंद हो गया और सरस्वती तथा उसकी सहायक दृशद्वती नदियाँ अपना पथ परिवर्तन करने लगी। एरिजोन शोध संस्थान जोधपुर के फलक को देखने पर यह पता चलता है कि यह धारा परिवर्तन एक बडे भू भाग पर अपना प्रभाव छोड गया। भीषण अकाल पड़ा। एक ऋषि द्वारा यह कटु सत्य स्वीकार किया गया है कि ‘मैने मरे हुए कुत्ते की अंतडियाँ उबाल कर खायीÓ मेरी आँखो के सामने, मु_ीभर दानो के लिए मेरी पत्नी की अवर्णनीय मर्मातक यातना से गुजरना पड़ा। यह ऋचा ऋग्वेद में उपस्थित है। इसके अलावा और किसी प्रमाण की आवश्यकता मानवता के साथ नग्न उपहास नहीं तो और क्या कहा जा सकता है। ऐसी दयनीय स्थिति से यदि बचना है, समस्त मानव व अन्य प्राणी समाज को बचाना है तो जागृत होना पडेगा।
विकास के नाम पर जो कुछ बिना सोचे-समझे किया जा रहा है उसके दुष्परिणाम भी देखने को मिल रहे हैं। क्या हम अब भी सचेत नहीं होंगे? प्रकृति को बचाना है मानव व अन्य प्राणी समाज को यदि जीवित रखना है तो हमें प्रकृति संरक्षण, पेड़-पौधों के नये वन फिरसे तैयार करने होंगे। प्रकृति की ओर लौटना होगा। मानव के विकास के चिंतन को छोड प्रकृति के विकास का चिंतन करना होगा। प्रकृति के विकास का चिंतन करने मात्र से कुछ नहीं होगा। प्रकृति का विकास और उसकी पूर्ण सुरक्षा ही हमारा ध्येय होना चाहिए। पेट्रोल-डीजल आदि कार्बनिक व अन्य रासायनिक पदार्थ का उपयोग कम से कम कर पृथ्वी को और अधिक गरम होने से बचाना होगा। बुंद-बुद जल संग्रह करना होगा। नदियों को प्रदुषित होने से बचाने के लिए नदी के किनारे पर जितने भी कारखाने हैं उन्हें अन्य स्थानों पर स्थानान्तरित किया जाना चाहिए। पेय जल, नदियों के जल को दुषित होने से बचाना होगा। भारत भर में यदि ‘एक घर पाँच वृक्षÓ हो तो घरों के आस-पास जंगल में पुन: वृक्ष लहलहाने लगेगा। तापमान भी कम पेयजल की आपूर्ति के लिए लोगों को बुंद-बुंद का महत्व समझाना होगा ताकि जल का अपव्यय रुक सके।
वस्तुत: अब हमें मानव का चिंतन छोड प्रकृति का चिंतन करना होगा। मानव को छोड प्रकृति को जोड़ो? क्या गोरैया फिर से लौट आएगी? क्या उसकी चह-चह से मन बच्चे सा फिर आनंदित हो उठेगा? आप क्या सोचते हैं।
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